Sunday, September 11, 2011

चुनाव सुधारों की आवश्यकता : मेरे सुझाव

मित्रों,
आज के समाचार पत्रों में हम सभी ने अन्ना और उनके सहयोगियों द्वारा चुनाव सुधारों की आवश्यकता की ओर ध्यान देने सम्बंधित खबर पढ़ी होगी, इसमें उनके द्वारा "राईट तो रिकाल" और "राईट तो रिजेक्ट " यानी कि जनता द्वारा चुनावों द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार और मतदान के दौरान किसी भी उम्मीदवार को वोटे न देने कि बात प्रमुखता से कही गयी है।
परन्तु मेरी सोच थोड़ी सी उलट है , इन दोनों अधिकारों के द्वारा वोट बैंक कि राजनीती कम नहीं होगी अपितु बढ़ जायेगी। आज मेरी समझ के अनुसार देश कि कुल आबादी का करीब ५०-६०प्रतिशत मतदाता के रूप में मौजूद है । यानी कि करीब ५०-६० करोड़ मतदाता हैं और अमूमन मतदान का प्रतिशत ५० के आसपास रहता है , संख्या के हिसाब से करीब २५-३० करोड़ मतदाता अपने वोट का प्रयोग करते हैं और जैसा कि मैंने कई बार टी वी और समाचार माध्यमों से जाना है कि जीतने वाली पार्टी या गठबंधन २५-३० प्रतिशत वोट हासिल कर सत्ता में आ जाती है। यानी कि १००-१२५ करोड़ कि आबादी वाले मुल्क कि सरकार को सिर्फ ७.५-८ करोड़ लोगों का ही जनादेश प्राप्त है।
यहीं से वोट बैंक और तुष्टिकरण कि राजनीती शुरू होती है क्योंकि राजनीतिक पार्टियां एकमुश्त और एकपक्षीय वोट डालने वाले समूह को खुश करके आसानी से सत्ता का रास्ता ढूंढ लेते हैं.
मैंने एकाध वर्ष पहले टी वी पर पूर्व चुनाव आयुक्त गोपालस्वामी का साक्षात्कार देखा और उनके द्वारा उस साक्षात्कार में सुझाया गया एक चुनाव सुधार मुझे बहुत पसन्द आया , उनके कहना था कि कई सांसद और विधायक कुल मतदान का सिर्फ ८-१० प्रतिशत वोट पाकर भी जीत जाते हैं क्योंकि इनके वोट अन्य उम्मीदवारों से ज्यादा होते हैं न कि उन्हें वोटों का बहुमत हासिल होता है। एक छोटे से समूह का एकपक्षीय मतदान उन्हें इतने कम वोट प्रतिशत के बावजूद भी विजय दिला देता है।
इसका उपाय यह है कि सांसद या विधायक चुनने के लिए कुल मतदाताओं का कम से कम ५० प्रतिशत वोट पाना अनिवार्य होना चाहिए यदि ऐसा हुआ तो राजनेता ज्यादा से ज्यादा लोगों को वोट देने को प्रेरित करेंगे और अपने क्षेत्र के सभी लोगों और समूहों का ध्यान देंगे।
यदि किसी कारण से इस नियम को लागू करने में कुछ व्यवहारिक दिक्कतें आयें तो विजयी प्रत्याशी के लिए कुल मतदान का ५० प्रतिशत वोट हासिल करना तो अनिवार्य होना ही चाहिए । तभी वोट बैंक राजनीती का अंत हो सकेगा इतने बड़े पैमाने पर वोट खरीदना भी करीब करीब असंभव हो जाएगा और राजनेता अपने चरित्र प्रदर्शन और सर्वमान्यता के आधार पर ही चुनावों में विजयश्री हासिल कर पाएंगे.

Friday, September 9, 2011

मेरे नेक खयालात: फेसबुक या ब्लॉग

मेरे नेक खयालात: फेसबुक या ब्लॉग

फेसबुक या ब्लॉग

कल मुझे ध्यान आया की जब से मैं फेसबुक पर एक्टिव हो गया हूँ तबसे मैंने अपने ब्लॉग को तो बिलकुल ही नेगलेक्ट कर दिया है । परन्तु अब कोशिश करूंगा की अपने विचारों को ब्लॉग पर भी व्यक्त करूं ।

Friday, December 31, 2010

हैप्पी न्यू इयर

नूतन वर्ष २०११ में आप सभी के लिए नयी उमंगें, नयी खुशियों और नयी सफलताओं की कामना करते हैं.

Tuesday, October 26, 2010

माओवादी

Maoist are just a band of militarily organized bandits extorting money in all possible forms, and for strange reasons these so called intellectuals with no knowledge of real issues start supporting them.... Maoist call for boycott of elections got a thumbs down from illiterate but more wise citizens in bihar . if they are the real savior of poor and tribals let them contest and win elections and root out the wrong politicians , but they don't fight elections because the support that they get is due to bullet and they cannot get it transformed to ballot

Tuesday, August 17, 2010

"Corruption"

Corruption is now a part and parcel of our value system ,We Indians have taken corruption for granted as corruption is just "Breaking News" we just love to watch and read . Therefore no corrupt person is ever shaken or perturbed.

Thursday, August 5, 2010

राष्ट्रमंडल खेल [सब गोलमाल है भाई सब गोलमाल है]

मित्रों हम सभी अब तक इन खेलों की आड़ में हो रही घपलेबाजी के बारे में काफी कुछ पढ़ व देख चुके होंगे। परन्तु हमारे जेहन में एक बात आती है कि राजनेताओं और पत्रकारों को पिछले कई महीनों और वर्षों से हो रहे किसी भी घपले कि भनक अभी ही क्यों लगी है? मुझे तो एक ही चिंता है कि इन खेलों का आयोजन इस प्रकार से हो जाए कि आम भारतीय का सर शर्म से न झुके । क्या कॉमन वेअल्थ के इस कीचड में कोई कमल खिल पायेगा?

Friday, July 23, 2010

मिड डे मील यानी शिक्षा का बंटाधार.


मित्रों,
हम सभी ने अखबारों और टी.वी पर मिड डे मील या मध्यान्ह भोजन के बारे में सुना होगा जो की भारत सरकार द्वारा मुफ्त में सभी सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त प्राथमिक और जूनियर स्कूलों में विद्यार्थियों को खिलाया जाता है ।
यह योजना भूतपूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव के शाशन काल में शुरू की गयी थी क्योंकि उस समय सरकारी गोदामों में जरूरत से ज्यादा गेहूं इकठ्ठा हो गया था और चूंकि वह हलकी क्वालिटी का होने के कारण एक्सपोर्ट नहीं हो सकता था , इसलिए यह योजना गेहूं के अतिरिक्त स्टॉक को ख़तम करने के लिए लागू हो गयी है।
आज की तारीख में यह योजना सरकारी शिक्षा विभाग की सबसे महत्वपूर्ण गतिविधि है। साथ ही यह इस विभाग के कर्मचारियों की जेबों को भरने का एक तरीका भी बन चुका है।
आज हालात ऐसे हैं की चाहें किसी विद्यालय में पढ़ाई हो न हो खाना ज़रूर बटेंगा, अध्यापकों और प्रधानाचार्यों पर कक्षा न लेने अथवा छात्रों को न पढ़ाने पर कार्यवाही तो नहीं होगी परन्तु यदि मिड डे मील नहीं वितरित हुआ तो कार्यवाही निश्चित है।
प्रतिदिन समाचार पत्रों में आप किसी न किसी विद्यालय में घटिया भोजन पअरोसे जाने की अथवा इस योजना के अनाज को बाज़ार में बेचे जाने की खबर तो ज़रूर पढ़ते होंगे , परन्तु कहीं भी यह नहीं बताया गया की इन विद्यालयों में शिक्षा का इस्तर कैसा है? विद्यार्थी कुछ सीख भी रहे है या नहीं? क्योंकि मास्टरजी ने यदि ठीक से मिड डे मील खिलवा दिया तो उनकी ड्यूटी पूरी। मुझे यह समझ में नहीं आता की जब सरकार रियायती दर पर खाद्यान उपलब्ध करा रही है या गरीब लोगों को मुफ्त अनाज बाँट रही है , तो फिर ऐसी योजना को क्यों चला रखा है?
इस मिड डे मील ने तो भ्रष्टाचार के कीर्तिमान बना दिए हैं और पढाई लिहाई ख़तम हो रही है। कई स्कूलों में तो छात्र सिर्फ भोजन करने आते हैं।
इसलिए सरकार को शिक्षा पर ज़्यादा ध्यान देना चाहिए और पौष्टिक आहार की उपलब्धता बढानी चाहिए परन्तु स्कूलों को सर्वप्रथम शिक्षा पर ही ध्यान देना चाहिए.

Wednesday, June 2, 2010

निराशा और आशा का द्वन्द.

मित्रों ,
हम सभी अपने जीवन में कभी न कभी इस प्रकार के द्वन्द से गुजरे हैं ,जब हमारे मन में आशा और निराशा के बीच एक द्वन्द होता है। इसका क्या कारण है?

Saturday, April 24, 2010

आई पी एल वालों को सलाह.

मित्रों ,
पिछले दिनों से चल रहे हंगामे पर मैं सिर्फ एक फिल्मी संवाद लिखना चाहूंगा श्री ललित मोदी जी के लिए , " चिनॉय सेठ जिनके घर शीशे के होते हैं वोह दूसरों के घर पर पत्थर नहीं फेंकते."

Sunday, April 18, 2010

ललित थरूर और शशि मोदी

मित्रों ,
आज उपरोक्त शब्द मैंने एक समाचार पत्र में पढ़े तो मुझे लगा की कितना सही लिखा है। मेरा मतलब है की दोनों के नामों का उलटफेर यह बताता है कि दोनों के आचरण में सामानता है। मैं आई पी अल से जुड़े विवाद को जब देखता और सुनता हूँ तो मुझे लगता है उपरोक्त दोनों लोग अपने हित को ही सर्वोपरि मान कर आई पी अल का इस्तेमाल करना चाहते हैं । क्योंकि दोनों के निजी हितों में टकराव हो गया तो यह सब हमारे सामने है। अरे भाई आई पी अल मोदी , सरकार या बीसीसी आई कि कैसे हो सकती है यह तो क्रिकेट प्रेमियों की है। इस में जो कोई भी पैसा लगा रहा है वोह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से क्रिकेट के प्रति आम भारतियों की दीवानगी को भुनाने के लिए है। एक तरफ ललित मोदी ने इसे एक जेबी संगठन बना दिया और शशि थरूर जैसे चाँद लोगों ने इसे मुफ्त में पैसा और नाम कमाने का जरिया बना लिया है। एक क्रिकेट प्रेमी के रूप में मुझे तो यह बहुत दुखद लग रहा और ललित मोदी और शशि थरूर के बारे में नयी नयी हंगामेदार जानकारी छापी और दिखाई जा रही है परन्तु कहीं से भी क्रिकेट प्रेमियों के साथ हो रहे इस खुले छलकी बात नहीं हो रही है । मैं समझता हूँ की किसी भी खेल के लिए सबसे महत्वपूर्ण उसके खिलाड़ी और खेलप्रेमी होने चाहिए और मीडिया सरकर या हम को संघठित हो कर इन बिचौलिए और खेल से गलत फायदा उठाने वालों का विरोध करना चाहिए।